Friday 23 November, 2007

खबर किसकी????????

आजकल यह ट्रेंड तेजी से देखा जा रहा है कि एक चैनल किसी फुटेज को एक्सक्लूसिव बता कर प्रसारित करता है और उसके चंद मिनटों बाद वही फुटेज एक नये कलेवर के साथ दूसरे चैनल की एक्सक्लूसिव खबर बन जाती है? क्या इस दिशा में कॉपीराइट कानून कुछ नहीं कहता.
ताजा-तरीन मामला डी-कंपनी के विडियो का है. सबसे तेज चैनल ने रात आठ बजे इस वीडियो क्लिप को आधार बना कर एक विशेष कार्यक्रम का प्रसारण शुरु किया. उसका चिर-प्रतिद्वंदी भला कैसे पीछे रह सकता था. बमुश्किल आधा घंटा हुआ था कि नयी साज-सज्जा के साथ वही विडियो क्लिपिंग दूसरे चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज के रूप में मौजूद था. लब्बो-लुआब यह कि हम कर रहे हैं यह सनसनीखेज खुलासा. भले ही यह खबर घंटो पहले दिखायी जा चुकी हो.
कहानी नयी नहीं है. विधी -व्यवस्था से जुडी तमाम खबरों पर ध्यान देते ही स्पष्ट हो जाता है कि एक क्लिप किस तरह हर चैनल पर घूमती है. भागलपुर में पुलिसकर्मी और भीड द्वारा एक युवक की बर्बरता से हुई पिटाई की खबर भी इसका उदाहरण है. इस घटना की फुटेज सबसे पहले वहां के स्थानीय चैनल पीटीएन ने ली थी लेकिन लगभग हर चैनल यह दावा करता रहा कि सबसे तस्वीर उसने ली. हद तो तब हो गयी जब घटना के एक दिन बाद भी एक चैनल उस फुटेज कोप लाइव कह कर प्रसारित करता रहा.
वर्षों पहले गुडगांवा के होंडा फैक्ट्री में हुए लाठीचार्ज में भी कुछ ऐसी हालत बनी थी. तब चैनलों की दाल इसलिए नहीं गली कि तस्वीर लेने वाला शख्स खुद एक स्वतंत्र पत्रकार था.
एक क्लिप को हासिल करना और उसे अपनी लोकप्रियता के लिए भुनाना बुरा नहीं है लेकिन क्या हम जरा भी ईमानदारी नहीं दिखा सकते हैं. कई बार 'एक चैनल की खबर के अनुसार' जैसे जुमलों का प्रयोग दर्शकों को भ्रमित होने से बचाता है. टीवी चैनलों पर इस सतर्कता का भी अभाव दिख रहा है.

Thursday 22 November, 2007

लाइव शो का ज़माना

शायद यही समय आ गया है। आए दिन टीवी चैनलों पर लाइव वीडियो की लाइन लगी हुई है. लेकिन सवाल है कि ये लाइव विडियो हैं किस चीज के. अगर आप टेलीविजन के नियमित दर्शक हैं तो समझने में देर नहीं लगेगी कि ये वीडियो हैं चोरी-सेंधमारी व मार-पीट जैसी वारदातों के. किसी बाजार में, शो-रूम के अंदर या फिर विदेशी हवाई अड्डों/ रेलवे स्टेशन के बाहर का दृश्य. थोडी सी माथापच्ची के बाद आपको यह जानने में भी देर नहीं लगेगी कि ये 'सस्ता माल' आता कहां से है.
यहां दो बातें गौर करने की हैं. पहला यह कि क्या वाकई ये वीडियो लाईव हैं? अगर हां, तो लाइव दिखाने के लिए सबसे उपयुक्त विषय क्या यही हैं?
इन समाचारों को गौर से देखने पर आप खुद पाएंगे एंकर कह रहे होते हैं- घटना कल दोपहर .. बजे की है. अब भूतकाल में कैसा लाइव होता है यह तो आप सोच ही सकते हैं.
दरअसल दुनियाभर में जैसे जैसे अपराध बढा है, लोगों ने अपने सुरक्षा के लिए बेहतर इंतजाम किये. इसी सिलसिले में सरी आंख यानी छुपे कैमरे के प्रयोग को बढावा मिला. विदेश में ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही हो रहा है. जब भी कोई वारदात होती है तो रेकार्डेड मूवमेंट्स आसानी से मीडिया को उपलब्ध करा दी जाती है. टीवी के लिए खबर भी बन गयी और दूसरी पार्टी को मुफ्त पब्लिसिटी भी मिल गयी.
ऐसा नहीं है कि उस समय दिखाने के लिए एकमात्र या सबसे बडी खबर वही हो. यह तो सभी जानते हैं कि हर समय कुछ न कुछ रचनात्मक गतिविधि कहीं न कहीं चलती रहती है. हां, उनकी कवरेज के लिए कुछ अतिरिक्त श्रम की जरूरत हो सकती है. लेकिन दिखाया तो वही जाएगा जो दिखाने वाले तय करेंगे.

Thursday 15 November, 2007

कहाँ है लोकतंत्र का चौथा खम्भा (चुनावों का मौसम है)

जी हाँ, ऐसा कहना गलत नहीं होगा यदि आप अभी अभी हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के एक चरण की कवरेज पर गौर करें। देश के विभिन्न हिस्सों में गिरता मतदान प्रतिशत जहाँ चिंता का विषय बन रहा है वहीं बर्फीले कबायली क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत 65 प्रतिशत तक पहुंच गया। लेकिन यह खबर नहीं हो सकती। खबर तो सिर्फ यह हो सकती है कि नरेन्द्र मोदी कैसे हारते हारते जीत गये.
इसे सिर्फ संयोग कहें या लोकतंत्र के इस स्वयंभू चौथे खम्भे की परीक्षा, दोनों खबरें एक साथ बनी। जिस दिन हिमाचल में चुनाव हुए उसी दिन एक नामचीन संस्था की ओर से गुजरात के लिए चुनाव पूर्व सर्वेक्षण जारी किया गया। इसमें मोदी की जीत की संभावना बतायी गयी थी। कम से कम तीन अखबारों ने इसे पहले पन्ने पर जगह दी।
वहीं हिमाचल में हुए चुनाव की खबर सिर्फ दो अखबारों के पहले पन्ने पर जगह पा सकी वह भी 'एक नजर' कॉलम में। बमुश्किल दो लाइन की खबर। द हिन्दू, द इंडियन एक्सप्रेस, दैनिक भास्कर ने इसे चार चार कॉलम की जगह तो दी मगर अन्दर के पन्नों पर। वह भी निचले हिस्से में। हिन्दुस्तान और द हिन्दू के पहले पन्ने पर 'एक नज़र' कॉलम में यह खबर थी। वहीं दैनिक जागरण ने अंदरूनी पन्ने पर इसे दो कॉलम की जगह दी।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बात करें तो हिमाचल चुनाव को सबसे ज्यादा दो मिनट का समय एनडीटीवी इंडिया ने दिया। वह भी दो बुलेटिनों को मिला कर। टीआरपी में नंबर वन की होड़ लेने वाले स्टार न्यूज ने मात्र 30 सेकेंड का समय इस खबर को दिया। सबसे तेज चैनल को तो यहाँ तक पहुँचने की जरूरत नहीं। हालांकि यही चैनल कुछ दिन पहले हिमाचल में ही 450 साल से एक लामा के जिन्दा रहने की संभावना पर घंटों चर्चा कर चुका है।
इस दिन अखबारों के पहले पन्ने पर जो एक कॉमन खबर कही जा सके वह थी नंदीग्राम मसले पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला। तो क्या राजनीति का मतलब सिर्फ गुजरात या पश्चिम बंगाल है? इस महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक घटना को दिखाना क्या मीडिया का काम नहीं है?

Wednesday 14 November, 2007

सिर्फ एक लक्ष्मी है खबर, हजारों लछमिनिया नहीं

शायद यही कहना चाह रही है भारत की इलेक्ट्रोनिक मीडिया. अभी कुछ दिनों पहले एक दो वर्षीया बच्ची के आपरेशन की खबर मीडिया में छाई रही। इतना ही नहीं डाक्टरों ने जैसे ही मोहलत दी टीवी की ब्रेकिंग न्यूज तैयार हो गयी -'आपरेशन के बाद लक्ष्मी पहली बार'।

फिर तो शुरू हो गया सिलसिला स्पेशल दर स्पेशल। नही तो कम से कम हर बुलेटिन की बड़ी खबर तो इसे बनाना ही था। भले ही इस दिन नंदीग्राम देश की बड़ी राजनीतिक पार्टियों को बेनकाब कर रहा हो।

आप कहेंगे कि मैं राजनिती की बोरियत भरी बहस में उलझाए रखना चाहता हूँ तो आइए उस खबर की ओर चलें जो राजनीति की नहीं बल्कि इसी लक्ष्मी कि बिरादरी से जुडी हुई है। यह खबर आयी भी उसी दरम्यान जब लक्ष्मी का आपरेशन हो चुका था और मीडियाकर्मी उसकी सलामती की खबर को पुष्ट करने के लिए बेताब थे। यह एक या दो नहीं बल्कि पूरी दुनिया की महिलाओं से जुडी खबर थी।

लक्ष्मी के आपरेशन के शायद अगले ही दिन एक अंतरराष्ट्रीय संस्था की रिपोर्ट आई जिसमें सामाजिक -सार्वजनिक जीवन में लिंगभेद की स्थिति का वर्णन था। अव्वल हालत वाले देशों कि कतार में भारत का स्थान 128 वां था। यह खबर सबसे पहले मुझे बिजनस स्टैण्डर्ड नामक अखबार में देखने को मिली। आश्चर्य लगा कि किसी भी बडे चैनल ने इस खबर को नहीं दिखाया था।

शायद ये दुनिया भर की लछमिनिया इन चैनलों की टीआरपी उतनी नही बढ़ा पाती जितनी एक 'लक्ष्मी' से मिली हो। इसलिए तो एक लक्ष्मी ही खबर है। हजारो लछमिनिया नहीं। है ना.

Wednesday 7 November, 2007

प्रधानमंत्री से बड़ा है सचिन का दर्द

पिछले दिनों टीवी चैनलों पर एक लाइन खूब सुनी गयी -"फिर छलका मनमोहन का दर्द". परमाणु करार पर गतिरोध और गठबंधन की राजनीति को लेकर प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों कई बयान दी जिन्हें उनकी पीडा से जोडा गया। लेकिन यह दर्द इतनी ही महत्ता रखता था कि महज कुछ बुलेटिनों की सुर्ख़ियों में रह गया या फिर दो चार मिनट की खबर इस पर बन सकी।

यह कप्तानी इनकार से करने के पीछे छिपा सचिन का दर्द तो था नहीं जिसके लिए विशेष कार्यक्रम दिखाए जाएँ या समाचार चैनलों के कीमती घंटे उस पर खर्च किये जाएँ। सचिन ने कप्तानी से इनकार किया उसके ठीक एक दिन पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संघवाद की अवधारणा पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा था कि एक दल का शासन ही लोकतंत्र के हित में है।

यह राष्ट्रीय राजनीति पर देश के सबसे बडे नेता का एक अंतर्राष्ट्रीय मंच से दिया गया बयान था। इससे पहले भी राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मंचों से वह बोलते रहे। जिसे टेलीविजन २-४ मिनट का समय मिलता रहा। गिने चुने ही विशेष कार्यक्रम इस पर आये होंगे। यहाँ डीडी न्यूज को अपवाद माना जा सकता है जिसके लिए सरकारी खबरें पहली प्राथमिकता रहती है।

लेकिन सचिन का अब का इनकार हो या वर्षों पहले टेनिस एल्बो में उठा दर्द। मीडिया के लिए उसे कवर करना सबसे जरूरी रहा। न सिर्फ चैनलों ने घंटो का समय दिया बल्कि अखबारों के लीड स्पेस में भी इसकी खासी जगह बनी रही।

प्रधानमंत्री के हालिया बयान को सबसे ज्यादा समय दिया सहारा ग्रुप के चैनल 'समय' ने। इसने कुल ११ मिनट का समय दिया था। इसी चैनल पर अगले दिन सचिन के लिए खर्च समय को देखें तो वह ज्यादा ही (13 मिनट) है। अन्य चैनलों पर प्रधानमंत्री के बयान को औसतन २ से ५ मिनट का समय मिला जबकि सचिन सचिन के इनकार की खबर को औसतन आधे घंटे का समय दिया गया।

तो अब किसी को यह मानने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि इस देश में सचिन का दर्द प्रधानमंत्री के दर्द से बढ़ कर है।

Monday 5 November, 2007

मीडिया में यूएसपी का नया फ़ंडा बना पाकिस्तान

पिछले दिनों समालोचक पर एक आलेख की प्रतिक्रिया में काकेश जी ने लिखा था कि मीडिया वही झलक दिखलाता है जो बिकता है. अब लगता है कि मीडिया के इस बाजार में तेजी से बदलाव आया है. हमारा पडोसी देश पाकिस्तान मीडिया के लिए यूएसपी (यूनिक सेल पॉइंट) का नया फंडा बन गया है. क्रिकेट और बॉलीवुड की प्राइम टाइम में बडी हिस्सेदारी बनी हुई है लेकिन पाकिस्तान की घटनाओं ने बहुत तेजी से प्राइम टाइम और लीड स्पेस दोनों में जगह बनायी है. इसकी ताजा मिसाल हम देख सकते हैं पाक में इमरजेंसी की घोषणा को मिली कवरेज में.

इमरजेंसी की घोषणा के बाद हालत कुछ यूं बनी कि लगभग सभी मुख्य समाचार चैनलों पर पूरे प्राइम टाइम में यही खबर चलती रही. मानो उस दिन देश में कोई खबर ही नहीं थी. कुछेक बार दशहरा या स्वतंत्रता दिवस परेड जैसे मौकों को छोड दें शायद पहली बार भारतीय नीजि मीडिया में इतनी एकरूपता दिखायी दी.

अभी हाल ही में अपना काया कल्प करने वाले चैनल सहारा समय ने तो गज़ब कर दिया. इस चैनल पर पूरे चार घंटे के दौरान सिर्फ एक कमर्शियल ब्रेक लिया गया जो कार्य्क्रम के बिल्कुल अंतिम हिस्से (10:45-10:47 pm) में था. चैनल ने 3 घंटे और 56 मिनट (कुल 130 मिनट) लगातार पाकिस्तान को समर्पित किया.

अन्य चैनलों का भी ग्राफ कुछ इसी तरह का है। सबसे तेज आजतक ने कुल 150 मिनट इस मुद्दे पर खर्च किये तो जी न्यूज ने 130 मिनट पाकिस्तान के नाम किया. स्टार न्यूज ने भी 96 मिनट इमरजेंसी की खबर पर खर्च किये। इस दिन इस चैनल का कुल न्यूज टाइम 132 मिनट था।

यहाँ समय की गिनती का मकसद आपको बताना है कि सामान्यतया निजी चैनल प्राइम टाइम में 120 मिनट के आसपास समय समाचारों के लिए खर्च करते हैं जो पाकिस्तान में इमरजेंसी की खबर के कारण बढ़ गया। यानी की पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है उसके लिए टीवी चैनल अपने व्यावसायिक हितों की कुर्बानी दे सकते हैं। काश! अपने देश की महत्वपूर्ण खबरों के लिए भी चैनल ऐसा कर पाते।

इस दौड में कोई अलग था तो वह है सार्वजनिक क्षेत्र का न्यूज चैनल डीडी न्यूज. इसने पूरे घटनाक्रम पर 37 मिनट समय खर्च किया.

घटना के दूसरे दिन छपे अखबारों में भी यह खबर पहली खबर रही। यहाँ तक तो ठीक है पर कई अखबारों ने पूरा का पूरा पन्ना ही पाकिस्तान के नाम कर दिया।

अगर हम थोडा ही पीछे जाएँ तो देखेंगे कि मोहतरमा भुट्टो की वतन वापसी, नवाज शरीफ के साथ हुआ नाटक, जस्टिस चौधरी के समर्थन में हुए प्रदर्शन और बेनजीर के काफिले पर हमले की खबर को मीडिया ने हाथों हाथ लिया था। भले ही अजमेर में धमाके होने के समय यही मीडिया अमिताभ बच्चन के जन्मदिन कि तैयारी करना नहीं भूले।

यहाँ हमारे कहने का मतलब यह नहीं है कि पाकिस्तान को इतनी कवरेज क्यों दी जा रही है बल्की हम यह जानना चाहते हैं कि इसे एनी विषयों पर हावी क्यो होने दिया जा रहा है। इस कवरेज के पीछे पड़ोसी के साथ संवेदनशील रिश्तों की बात बार बार की जाती है। लेकिन अगर हमें पडोसियों या दूसरे देशों से रिश्तों की इतनी ही चिंता है तो सोनिया गांधी के चीन दौरे को, प्रधान मंत्री के अफ्रिका दौरे को ऎसी कवरेज क्यों नहीं मिल पाती है। प्रधानमंत्री इबसा की बैठक में कितने ही व्यावसायिक, आर्थिक समझौते कर लें खबर तो यही बनेगी कि उन्होने परमाणु करार पर क्या कहा। वह भी शायद कुछ ही चैनलों तक सीमित रहे।

तो क्या भारतीय मीडिया पाकिस्तान के मामले मन किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हो चुका है? राजनीति में विवादों का सबब बन चुका शब्द तुष्टिकरण क्या अब मीडिया में भी अपना रंग दिखायेगा? और सबसे बढ़कर सवाल कि क्या मीडिया पूर्वाग्रह मुक्त और संतुलित परिणाम देने कि लिए तैयार है?

Saturday 3 November, 2007

परहेज से रुके कैंसर: तो क्या करे मीडिया?

यह सवाल इसलिए किया जा रहा है कि इस महीने के पहले ही दिन विश्व कैंसर शोध कोष ने एक रिपोर्ट जारी की. उस रिपोर्ट को भारतीय मीडिया में न के बराबर कवरेज मिली. टीवी समाचार चैनलों के 'झलक दिखला जा' समर्पित रवैये के कारण उनसे इस विषय पर कवरेज की उम्मीद भी बेमानी लगती थी लेकिन अगले दिन छपे अखबारों ने भी इस मामले में निराश किया.

दो नवंबर को प्रकाशित प्रमुख अखबारों में अकेले द टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को कवर किया. इस अखबार में बारहवें पन्ने पर दो कॉलम की खबर इस विषय में थी. अखबार ने विश्व कैंसर शोध कोष के की रिपोर्ट के हवाले से दी गयी जानकारियों का ब्यौरा दिया है. ग्राफिक्स का प्रयोग कर खबर को आकर्शक बनाने की कोशिश की गयी है.

इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की बात करें तो सिर्फ बीबीसी हिंन्दी ने इस खबर को कवरेज दी. इसने भी शोध संस्थान द्वारा दी गयी जानकारियों और नये शोध के बारे में बताया है.

ये तो थी कवरेज की बात, अब लौटते हैं मूल प्रश्न पर और जानते हैं कि कवरेज जरूरी क्यों थी. कैंसर की भयावहता को बताने की शायद जरूरत नहीं है. अब तक इसके इलाज के दावे भर हो रहे हैं. वह इलाज भी इतना महंगा है कि आम लोगों के शायद स्वप्न ही बना रहे. नये शोध से पता चलता है कि खाने-पीने में परहेज रखकर और अपना वजन संतुलित रखकर इस बीमारी से बचा जा सकता है. ऐसे में यह जानकारी उस बडी के आबादी के लिए लाभकारक होगी जो समुचित इलाज के अभाव में बीमारि का दंश झेलती है.

बडे जनसमुदाय के हित की जानकारी देना समाचार माध्यमों का पहला कर्तव्य माना जाता रहा है. इसलिए इस शोध को मीडिया में उचित कवरेज मिलना अपेक्षित था. भारतीय मीडिया के वर्तमान रवैये ने साबित कर दिया कि वह जनता से जुडे मुद्दे खासकर, स्वास्थ्य के प्रति संवेदन्शील नहीं है.

Thursday 1 November, 2007

किसका जन्मदिन मनाए मीडिया

फिल्मस्टार और क्रिकेटर भले ही मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज बनते रहें लेकिन यह स्वीकार करने में कोई शक नहीं होना चाहिए कि देश के रहनुमाओं को सम्मान देना हमारी मीडिया को नहीं आता है. शायद यह संयोग ही है कि 31 अक्टूबर को देश की एक नहीं दो विभूतियों से जुडा है. देश की पहली और इकलौती महिला प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की पुण्यतिथी और प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन एक ही तारीख को होने के बावजूद मीडिया दोनों को ही भूल जाती है.

यहां आप अपने आप से एक सवाल पूछ कर देखें कि 11 अक्टूबर को किस भारतीय हस्ती का जन्मदिन था? सहज ही आपको याद आएंगे हिन्दी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन. इक्के दुक्के ही चैनल हैं जिन्होंने इस जन्मदिन के सेलीब्रेशन के लिए स्पेशल दिखा कर आपको याद न दिलाया हो. लेकिन इतिहास की किताबों मगजमारी करके ही आप जान पायेंगे कि इसी दिन संपूर्ण क्रान्ती के जनक जयप्रकाश नारायण भी जन्मे थे. बहरहाल, हम लौटते हैं ताजा हालात पर्.

कुछ अखबार या चैनलों में खबर ये बनती है कि 1984 के दंगापीडितों ने प्रदर्शन किया. यह खबर मीडिया को महत्वपूर्ण लगती है मगर इंदिरा गांधी का देश के लिए क्या योगदान रहा इस को याद करना जरूरी नहीं समझा जाता है. हां सरकारी नियंत्रण के चैनल डीडी न्यूज पर विशेष कार्यक्रम जरूर दिखाये जाते हैं. शायद मान लिया गया है कि सरकार चलाने वालों को याद रखने की जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ सरकारी संस्थानों की ही है.

प्रिंट मीडिया का भी रूख इस मामले में बहुत अच्छा नहीं है. इस दिन गिने चुने अखबारों के संपादकीय पृष्ठ पर इस विषय से जुडे लेख थे. राजस्थान पत्रिका ने विशेष फीचर के रूप में दोनों नेताओं के जीवन पर लेख छापे. अन्य अखबारों में इस विषय को न के बराबर महत्व मिला.

हां इस दिन सुर्खियों में एक दिवंगत नेता का नाम जरूर था. उनके किसी काम के लिए नहीं बल्कि उन्हीं के हत्या के आरोपी सगे भाई द्वारा एक इल्जाम मढने के कारण. क्या मीडिया ने यह ध्रुवसत्य मान लिया है कि राजनेताओं के जीवन में कोई भी अच्छी चीज नहीं है जिसे कम से कम उनके पुण्यतिथि या जन्मतिथी पर याद किया जा सके? कम से कम जिनलोगों ने अपना जीवन देश की राजनीति में ही खापाया उनके साथ तो न्याय हो.

Tuesday 30 October, 2007

टीवी चैनल की नयी भूमिका: मचाएं बबाल

यह हम नहीं कहते खुद एक टीवी चैनल कहता है. वही चैनल जो आज कल सबसे ज्यादा चर्चा में है. जरा गौर कीजिए आजतक के कार्यक्रम 10 तक में एंकर द्वारा पूरे जोशो-खरोश से पढे गये इस समाचार पर- "तहलका आजतक के खुलासे से हिला पूरा हिन्दुस्तान, राजनीति में उबाल देशभर में बबाल."
क्या यह मीडिया की परिष्कृत भाषा है? भाषा को लेकर संतुलन क्यों नहीं बनाया गया? भाषा के इस गलत प्रयोग ने एक बार मीडिया की नैतिकता और जिम्मेदारी पर एक बार फिर सवाल खडे कर दिये.
अगर बबाल की स्थिति बनती ही तो क्या चैनल देश की जनता से शांति- सद्भाव बनाए रखने की अपील नहीं कर सकता था. चैनल ने वैधानिक चेतावनी दिखायी कि कार्यक्रम का बच्चों और कमजोर दिल वालों पर बुरा असर पर सकता है. वही चैनल एक पंक्ति में यह अपील भी क्यों नहीं कर पाता है कि दर्शक कोई ऐसी प्रतिक्रिया न दें जिससे सामाजिक सद्भाव पर प्रतिकूल प्रभाव पडे. अगर किसी कारण से देश के हिस्से में सामुदायिक हिंसा फैलती तो क्या चैनल आगे बढ कर इनकी जिम्मेदारी लेता?
कार्यक्रम के दौरान भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद बार बार संकेतों में कहते रहे कि "सांप्रदायिक तनाव में जिस जिम्मेदारी का अहसास दिखाया जाना चाहिए वह आपका चैनल भी शायद नहीं दिख सका है." मगर इस पर ध्यान देने की जरूरत किसे पडी थी? खुद जिम्मेदारी निभायें या नहीं हमें टोकने वाला कौन है?
चैनल दो दिन पहले से सबसे बडे कलंक का खुलासा करने का प्रचार कर रहा था. निश्चय ही चैनल को यह मालूम था कि वह इस समय के सबसे ज्यादा विवादास्पद मुद्दे को उठाने जा रहा है. इसलिए उसकी जिम्मेदारी बनती थी कि वह इस कार्यक्रम के बाद पैदा हो सकने वाले सभी हालातों से निपटने की पूरी तैयारी करे.

Saturday 27 October, 2007

ऑपरेशन अपना भी करें


आजतक ने कलंक का ऑपरेशन कर खूब टीआरपी बटोरी लेकिन इसके प्रसारण के दौरान चैनल पर ही छिडी बहस ने साबित कर दिया कि आज तथ्यों को खंगालने और जांचने की जरूरत खत्म हो गयी मालूम पडती है. जरा गौर से देखने पर आप पायेंगे कि कार्यक्रम के दौरान कई बार तथ्यों को इस तरह प्रस्तुत किया गया कि उनकी विश्वस्नीयता कठघरे में आ गयी.

मसलन कार्यक्रम के सबसे पहले स्लॉट में चैनल ने प्रश्न किया कि दंगा भडकने के बाद सेना को सडक पर उतरने में तीन दिन क्यों लगे? इन तीन दिनों में मुख्यमंत्री और अधिकारी क्या करते रहे? इसके बाद काफी देर तक कहा जाता रहा कि दंगाइयों को तीन दिन की छूट थी. इस कथन के पक्ष में चैनल ने प्रमाण भी प्रस्तुत किये.

लगभग बहुत देर बाद विवाद की स्थिति बनी जब एक भाजपा सांसद ने फोन पर कहा कि 28 तारीख को हिंसा शुरु हुई और 1 तारीख की सुबह 11 बजे वहां सेना मार्च कर रही थी. सांसद महोदय के इतना कहने पर पर एंकर महोदय उन्हें गिनती सिखाने लगे '28, 29 और 30 तीन दिन कैसे नहीं हुआ. उन्हें जबाव मिला तो एक हास्यास्पद स्थिति थी. सांसद ने बताया कि वह तारीख 28 फरवरी थी जिसके ठीक अगले दिन 1 मार्च था. फिर भी अपनी गलती स्वीकारने के बजाए एंकर इस बात पर अडे रहे कि सेना को सडक पर आने में तीन दिन लग गये.
लगभग बहुत देर बाद विवाद की स्थिति बनी जब एक भाजपा सांसद ने फोन पर कहा कि 28 तारीख को हिंसा शुरु हुई और 1 तारीख की सुबह 11 बजे वहां सेना मार्च कर रही थी. सांसद महोदय के इतना कहने पर पर एंकर महोदय उन्हें गिनती सिखाने लगे '28, 29 और 30 तीन दिन कैसे नहीं हुआ. उन्हें जबाव मिला तो एक हास्यास्पद स्थिति थी. सांसद ने बताया कि वह तारीख 28 फरवरी थी जिसके ठीक अगले दिन 1 मार्च था. फिर भी अपनी गलती स्वीकारने के बजाए एंकर इस बात पर अडे रहे कि सेना को सडक पर आने में तीन दिन लग गये.

दूसरे दिन भी चैनल पर ऑपरेशन कलंक का एपिसोड जारी था और वही सांसद महोदय चैनल के स्टूडियो में मौजूद थे. जब किसी बिन्दु पर उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने अपनी शर्त रखी- "पहले मुझे उस तीन दिन का हिसाब दो फिर कोई बात होगी. कल से आप गलत प्रचार कर रहे हो." हालात बिगडते देख एंकर ने कहा हमने कोई तीन दिन की बात नहीं कही थी. सांसद इस बात पर अड गये कि चैनल ने तीन दिन की बात की है. उन्होंने दावा किया कि टेप दुबारा चलाया जाये उनकी बात सही साबित होगी.

तब एंकर महोदय ने सुधार किया "हम आपके विधायक की जुबान बोल रहे थे, ये देखिये आपके विधायक ने स्वीकार किया है कि दंगाईयों तीन दिन की मोहलत मिली थी." यहां कई सवाल खडे होते हैं- पहली बात कि क्या चैनल किसी और किसी और की जुबान बोलकर उस कथन को सही साबित करने की बहस का अधिकार रखता है.

दूसरे, अगर आप कार्यक्रम का पहला स्लॉट दुबारा देख सकें तो पता चल जाएगा कि विधायक के बयान से काफी पहले चैनल यह रटता आया था कि सेना को तीन दिन तक सडक पर उतारा नहीं गया. क्या अगर गलती होती है तो इसे स्वीकारना नहीं चाहिए. ऐसी हालत आयी भी मुख्य एंकर के सहयोगी ने लाइव ही स्वीकार किया- "छोडिये हमसे गलती हो गयी." लेकिन तभी मुख्य एंकर फिर से अड गये "नहीं, हम से कोई गलती नहीं हुई, हम हम बीजेपी विधायक की बात कह रहे थे."

एंकर का यह रवैया तीसरे और महत्वपूर्ण सवाल को जन्म देता है. अगर किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठा आदमी कुछ भी बयान दे दे तो चैनल उसे ही सच मान लेगा? क्या क्रॉस-चेक जैसी कोई परंपरा नहीं होती? क्या चैनलों में संपादक नाम की संस्था का कोई अस्तित्व नहीं है. अगर आप यह मान बैठे हों कि चैनल अपने तथ्य पर पूरी तरह सही था तो एक बार इस पोस्ट के सबसे उपरी हिस्से में लगी तस्वीर पर गौर कीजिए. यह तस्वीर हिन्दुस्तान टाइम्स के फोटोग्राफर रामास्वामी कौशिक द्वारा 1 मार्च 2002 को ली गयी थी. अधिक पुष्टि के लिए आप 1 या 2 मार्च 2002 को छपा हिन्दुस्तान टाइम्स देख सकते हैं. (यह जानकारी इंटरनेट के माध्यम से ली गयी है.)

आखिरकार वही सवाल पैदा होता है कि क्या मीडिया अपना भी ऑपरेशन कर सकती है? क्या उसमें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत है? और क्या टीआरपी की भागमभाग में वह अब भी सिद्धांतों और विश्वसनीयता को बनाये रख पायेगा?

Friday 26 October, 2007

गुजरात में क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा क्या?



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जी हां चाहे कितने ही लोगों ने सुना या देखा होगा आज तक- तहलका का वह स्टिंग ऑपरेशन. लेकिन सिर्फ आम लोगों ने ही नहीं मीडिया के दूसरे धरों ने भी इस पर अपनी निगाह रखी. 25 अक्टूबर की देर शाम तक यह कार्यक्रम चैनल पर दिखाया जा रहा था और अगली सुबह अखबारों ने भी इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया. अंग्रेजी अखबारों द इंडियन एक्सप्रेस और द टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को पहले पन्ने पर लीड स्पेस में जगह दी. जबकि हिंदी अखबारों में इसे सामान्य खबरों की तरह रखा गया. दो अखबारों राष्ट्रीय सहारा और राजस्थान पत्रिका में खबर पहले पन्ने पर छपी जबकि हिन्दुस्तान ने इसे अंदर के पन्ने पर दिखाया.
द टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे पहले पर सबसे ऊपर दो कॉलम की जगह दी है और अंदर के पन्नों पर भी जारी रखा है. अखबार ने स्टिंग ऑपरेशन में दिखाये गये अधिकतर लोगों को तहलका के हवाले से उद्धृत किया है. खबर में भाजपा का बयान भी प्रकाशित किया गया है जिसमें पार्टी ने ऑपरेशन को मोदी को बदनाम करने की साजिश बताया है. अखबार ने खबर में ही स्पष्टीकरण दिया है कि तहलका द्वारा किये गये स्टिंग के तथ्यों को द टाइम्स ऑफ इंडिया ने क्रॉस चेक नहीं किया है.
द इंडियन एक्सप्रेस ने तीन कॉलम में पहले पन्ने के लीड स्पेस से चली इस खबर को दूसरे पन्ने तक जारी रखा है. इसी खबर के साथ एक और खबर भी छपी है जिसमें न्यायमूर्ति नानावती के हवाले से कहा गया है कि नानावती आयोग मामले में संज्ञान ले सकता है. यह खबर मामले पर और ज्यादा फोकस करती है लेकिन इस अखबार में किसी संगठन या पार्टी का पक्ष नहीं रखा गया है.
हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने मुख्य पृष्ठ के निचले हिस्से में इस खबर को दो कॉलम की जगह दी है. पत्र ने तहलका के संपादक तरूण तेजपाल के हवाले खबर प्रकाशित की है. स्टिंग ऑपरेशन के तथ्यों को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है.
दैनिक हिंदुस्तान ने राष्ट्रीय समाचारों के पन्ने पर प्रकाशित खबर में इस बात को महत्व दिया है कि उच्च न्यायालय की एक वकील मामले की दुबारा सुनवाई के लिए अपील करने वाली है. इस पत्र ने भी खबर के लिए तहलका के संपादक तरूण तेजपाल द्वारा आयोजित प्रेस कांफ्रेंस का हवाला दिया है.
राजस्थान पत्रिका ने पहले पन्ने के सबसे निचले हिस्से में इस खबर को प्रकाशित किया है. पत्रिका ने लिखा है कि "गुजरात में हुए बडे पैमाने पर दंगे और नरसंहार के लिए तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर मोदी सरकार, विहिप और बजरंग दल की संलिप्तता का दावा किया है."
कुल मिलाकर देखा जाए तो इस माले में अधिकतर अखबारों ने सधा हुआ रूख अपनाया है. अधिकतर अखबारों ने तहलका को उद्धृत किया है. स्टिंग ऑपरेशन में जिन पर आरोप लगाया गया है खबरों में उनका पक्ष नहीं के बराबर है. एक बडे जनसमुदाय से जुडे होने के साथ यह मामला अतिसंवेदनशील भी था. इसलिए मामले में विभिन्न पक्षों की राय प्रकाशित की जानी चाहिए थी या यूं कहें कि एक ऐसे बहस का स्वरूप दिया दिया जाना चाहिए था जिसमें आरोपी, आरोप लगाने वाले और तटस्थ पक्ष सभी शामिल हों. इस दिशा अखबार नाकाम मालूम पडते हैं.

Thursday 25 October, 2007

ब्रेकिंग न्यूज : पत्रकार पिटे

वीरवार की शाम आईबीएन 7 पर यही ब्रेकिंग न्यूज थी। एक चैनल पर खबर चली क्या यह पूरी मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज बन गयी। हालांकि चैनल ने खबर को इस तरह दिखाया था : "लुधियाना में पहलवान भिडे।" पहली नजर में मैंने भी सोचा पहलवानों का भिड़ना नयी बात नहीं। लेकिन पूरी कहानी देखने के बाद पता चला कि पहलवान किसी और से नही पत्रकारों से भिडे थे।
यह खबर ब्रेकिंग न्यूज इसीलिए बनी कि मामला ऐसा है कि उस शाम लुधियाना में कुछ पहलवान प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। दो एक दिन बात वहाँ कुश्ती प्रतियोगिता होनी थी। तभी खबर आयी कि प्रतियोगिता रद्द हो गयी है। तभी किसी बात पर एक पत्रकार को हँसी आ गयी. यह हँसी पहलवान को चिढा गयी और दंगल शुअरू हो गया.
सवाल है कि अगर पत्रकारों से पहलवानों की लड़ाई हुई भी तो क्या यह इतनी बड़ी बात है जो पूरे देश के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो। इतनी कि ब्रेकिंग न्यूज बन जाए। आख़िर ब्रेकिंग न्यूज का मतलब क्या है? यह घटना उस स्थान विशेष पर बड़ी बात हो सकती है। पर राष्ट्रीय चैनलों के लिए यह कैसे ब्रेकिंग न्यूज हो सकती है?
ठीक इसी समय दूसरे चैनल पर चल रहे ब्रेकिंग न्यूज पर नजर डालते हैं। आज तक की ब्रेकिंग न्यूज थी : मैडम तुशाद म्यूजियम में लगेगी सलमान की मूर्ति, सर्वेक्षण में सलमान और ऐश्वर्या से आगे निकले।
क्या यह खबर भी ब्रेकिंग न्यूज बनने लायक थी? कितना बड़ा जनसमुदाय इससे प्रभावित हो रहा था?
आज चैनलो के रवैये से बस इतना ही कहा जा सकता है कि टेलीविजन की टर्मिनोलोजी के लिए नए शब्दकोष का इस्तेमाल करना पडेगा.

Wednesday 24 October, 2007

करार पर रार है बुरी

जी हां, यही कह रहे हैं भारत के अखबार. मंगलवार को मीडिया में प्रधानमंत्री का बयान आया कि गठबंधन के कारण सरकार चलाने में मजबूरियां आती हैं. माना गया कि यह बयान वाम दलों के उस बयान का करारा जबाव था जिसमें उन्होंने करार पर आगे न बढने का लिखित आश्वासन मांगा था. इस दिन यूपीए-वाम दल समन्वय समिति की बैठक थी. दूसरी ओर वाम दलों ने इसी दिन यूपीए के कुछ घटकों और अन्य दलों के साथ बैठक कर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की थी.

अगले दिन छपे कई अखबारों ने करार पर राजनीतिक दलों के रवैये को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया. अधिकतर अखबारों ने यह कहा है कि करार पर यह गतिरोध देश के लिए ठीक नहीं है और राजनीतिक दलों का स्वार्थ इसके आडे आ रहा है. लेकिन किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि विरोध किन मुद्दों को लेकर हो रहा है. उन मुद्दों पर विचार नहीं किया गया है कि कहां तक वह देश के हित में हैं या नहीं. कम ही अखबारों में करार से होने सकने वाले फायदों का ज़िक्र किया गया है वह भी अंत की एक या दो पंक्तियों में.
द इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय का शीर्षक (पॉलिटिकल ड्यूटी) ही बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है. पत्र ने लिखा है: "यह क्यों न देखा जाए कि करार पर सदन में किसने अपनी बात रखी है और क्या सुझाव दिए हैं?" पत्र का कहना है कि इस मुद्दे पर नेताओं को शीघ्र अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए.

द इंडियन एक्स्प्रेस का कहना है कि "यदि मुद्दे पर आंतरिक बहस की तैयारी कर भी ली जाती तो विपक्षी और वाम दल संसद में बहस की जिद करते." पत्र कहता है कि "मध्यावधि चुनाव की आशंका राजनीति का व्यावसायिक खतरा है और इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन बहुदलीय व्यवस्था में कैबिनेट सभी का प्रतिनिधित्व करता है और यह ध्यान रखना राजनीतिक कर्तव्य है."

हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है "इस बात पर कभी बहस नहीं हुई कि करार देश के हित में है या नहीं. बहस का मुद्दा सिर्फ दो विषय रहे- (1) क्या भारत अमेरिका का अनुयायी बन रहा है और (2) क्या करार मध्यावधि चुनावों की कीमत पर हो."

पत्र कहता है कि आईएईए के साथ के साथ बातचीत के ठीक पहले वाम का एकाएक विरोध वैसा ही है जैसे बेटी की पसंद का दुल्हा चुनने और सारी रस्में पूरी करने के बाद मंडप में परिवार वाले "नहीं- नहीं" चिल्लाएं. पत्र का कहना है कि करार पर जारी यह अंदरूनी उठापटक देश के अंतर्राष्ट्रीय साख को नुकसान पहुंचाएगी.
हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने इसे वाम मोर्चा का कैकेयी हठ करार दिया है. पत्र ने लिखा है "सरकार को दिए जा रहे समर्थन की कीमत को आप ब्लैकमेल तक खींच कर ले जाएं, यह स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान तो मानी ही नहीं जा सकती."
हलांकि इस पत्र ने प्रधानमंत्री की भी आलोचना करते हुए लिखा है "प्रधानमंत्री इस्तीफ़ा देने के लिए क्यों अपने वरिष्ठों के सामने गिडगिडा रहे हैं? क्यों नहीं वे इस्तीफा देकर परंपरा कायम करते कि देश को अगर क्षमतावान प्रधानमंत्री नहीं चाहिए तो इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं."
इस तरह स्पष्ट है कि अखबारों ने इस मुद्दे पर सभी पक्षों की बात को नहीं रखा है. अगर वाम दलों की चिंताओं और करार से संभावित लाभ दोनों पर स्पष्ट बहस की जाती तो शायद पाठक को और अधिक जानकारी मिल पाती. साथ ही राष्ट्रीय परिदृश्य में मुद्दे को एक दिशा मिल पाती.