Tuesday 30 October, 2007

टीवी चैनल की नयी भूमिका: मचाएं बबाल

यह हम नहीं कहते खुद एक टीवी चैनल कहता है. वही चैनल जो आज कल सबसे ज्यादा चर्चा में है. जरा गौर कीजिए आजतक के कार्यक्रम 10 तक में एंकर द्वारा पूरे जोशो-खरोश से पढे गये इस समाचार पर- "तहलका आजतक के खुलासे से हिला पूरा हिन्दुस्तान, राजनीति में उबाल देशभर में बबाल."
क्या यह मीडिया की परिष्कृत भाषा है? भाषा को लेकर संतुलन क्यों नहीं बनाया गया? भाषा के इस गलत प्रयोग ने एक बार मीडिया की नैतिकता और जिम्मेदारी पर एक बार फिर सवाल खडे कर दिये.
अगर बबाल की स्थिति बनती ही तो क्या चैनल देश की जनता से शांति- सद्भाव बनाए रखने की अपील नहीं कर सकता था. चैनल ने वैधानिक चेतावनी दिखायी कि कार्यक्रम का बच्चों और कमजोर दिल वालों पर बुरा असर पर सकता है. वही चैनल एक पंक्ति में यह अपील भी क्यों नहीं कर पाता है कि दर्शक कोई ऐसी प्रतिक्रिया न दें जिससे सामाजिक सद्भाव पर प्रतिकूल प्रभाव पडे. अगर किसी कारण से देश के हिस्से में सामुदायिक हिंसा फैलती तो क्या चैनल आगे बढ कर इनकी जिम्मेदारी लेता?
कार्यक्रम के दौरान भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद बार बार संकेतों में कहते रहे कि "सांप्रदायिक तनाव में जिस जिम्मेदारी का अहसास दिखाया जाना चाहिए वह आपका चैनल भी शायद नहीं दिख सका है." मगर इस पर ध्यान देने की जरूरत किसे पडी थी? खुद जिम्मेदारी निभायें या नहीं हमें टोकने वाला कौन है?
चैनल दो दिन पहले से सबसे बडे कलंक का खुलासा करने का प्रचार कर रहा था. निश्चय ही चैनल को यह मालूम था कि वह इस समय के सबसे ज्यादा विवादास्पद मुद्दे को उठाने जा रहा है. इसलिए उसकी जिम्मेदारी बनती थी कि वह इस कार्यक्रम के बाद पैदा हो सकने वाले सभी हालातों से निपटने की पूरी तैयारी करे.

Saturday 27 October, 2007

ऑपरेशन अपना भी करें


आजतक ने कलंक का ऑपरेशन कर खूब टीआरपी बटोरी लेकिन इसके प्रसारण के दौरान चैनल पर ही छिडी बहस ने साबित कर दिया कि आज तथ्यों को खंगालने और जांचने की जरूरत खत्म हो गयी मालूम पडती है. जरा गौर से देखने पर आप पायेंगे कि कार्यक्रम के दौरान कई बार तथ्यों को इस तरह प्रस्तुत किया गया कि उनकी विश्वस्नीयता कठघरे में आ गयी.

मसलन कार्यक्रम के सबसे पहले स्लॉट में चैनल ने प्रश्न किया कि दंगा भडकने के बाद सेना को सडक पर उतरने में तीन दिन क्यों लगे? इन तीन दिनों में मुख्यमंत्री और अधिकारी क्या करते रहे? इसके बाद काफी देर तक कहा जाता रहा कि दंगाइयों को तीन दिन की छूट थी. इस कथन के पक्ष में चैनल ने प्रमाण भी प्रस्तुत किये.

लगभग बहुत देर बाद विवाद की स्थिति बनी जब एक भाजपा सांसद ने फोन पर कहा कि 28 तारीख को हिंसा शुरु हुई और 1 तारीख की सुबह 11 बजे वहां सेना मार्च कर रही थी. सांसद महोदय के इतना कहने पर पर एंकर महोदय उन्हें गिनती सिखाने लगे '28, 29 और 30 तीन दिन कैसे नहीं हुआ. उन्हें जबाव मिला तो एक हास्यास्पद स्थिति थी. सांसद ने बताया कि वह तारीख 28 फरवरी थी जिसके ठीक अगले दिन 1 मार्च था. फिर भी अपनी गलती स्वीकारने के बजाए एंकर इस बात पर अडे रहे कि सेना को सडक पर आने में तीन दिन लग गये.
लगभग बहुत देर बाद विवाद की स्थिति बनी जब एक भाजपा सांसद ने फोन पर कहा कि 28 तारीख को हिंसा शुरु हुई और 1 तारीख की सुबह 11 बजे वहां सेना मार्च कर रही थी. सांसद महोदय के इतना कहने पर पर एंकर महोदय उन्हें गिनती सिखाने लगे '28, 29 और 30 तीन दिन कैसे नहीं हुआ. उन्हें जबाव मिला तो एक हास्यास्पद स्थिति थी. सांसद ने बताया कि वह तारीख 28 फरवरी थी जिसके ठीक अगले दिन 1 मार्च था. फिर भी अपनी गलती स्वीकारने के बजाए एंकर इस बात पर अडे रहे कि सेना को सडक पर आने में तीन दिन लग गये.

दूसरे दिन भी चैनल पर ऑपरेशन कलंक का एपिसोड जारी था और वही सांसद महोदय चैनल के स्टूडियो में मौजूद थे. जब किसी बिन्दु पर उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने अपनी शर्त रखी- "पहले मुझे उस तीन दिन का हिसाब दो फिर कोई बात होगी. कल से आप गलत प्रचार कर रहे हो." हालात बिगडते देख एंकर ने कहा हमने कोई तीन दिन की बात नहीं कही थी. सांसद इस बात पर अड गये कि चैनल ने तीन दिन की बात की है. उन्होंने दावा किया कि टेप दुबारा चलाया जाये उनकी बात सही साबित होगी.

तब एंकर महोदय ने सुधार किया "हम आपके विधायक की जुबान बोल रहे थे, ये देखिये आपके विधायक ने स्वीकार किया है कि दंगाईयों तीन दिन की मोहलत मिली थी." यहां कई सवाल खडे होते हैं- पहली बात कि क्या चैनल किसी और किसी और की जुबान बोलकर उस कथन को सही साबित करने की बहस का अधिकार रखता है.

दूसरे, अगर आप कार्यक्रम का पहला स्लॉट दुबारा देख सकें तो पता चल जाएगा कि विधायक के बयान से काफी पहले चैनल यह रटता आया था कि सेना को तीन दिन तक सडक पर उतारा नहीं गया. क्या अगर गलती होती है तो इसे स्वीकारना नहीं चाहिए. ऐसी हालत आयी भी मुख्य एंकर के सहयोगी ने लाइव ही स्वीकार किया- "छोडिये हमसे गलती हो गयी." लेकिन तभी मुख्य एंकर फिर से अड गये "नहीं, हम से कोई गलती नहीं हुई, हम हम बीजेपी विधायक की बात कह रहे थे."

एंकर का यह रवैया तीसरे और महत्वपूर्ण सवाल को जन्म देता है. अगर किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठा आदमी कुछ भी बयान दे दे तो चैनल उसे ही सच मान लेगा? क्या क्रॉस-चेक जैसी कोई परंपरा नहीं होती? क्या चैनलों में संपादक नाम की संस्था का कोई अस्तित्व नहीं है. अगर आप यह मान बैठे हों कि चैनल अपने तथ्य पर पूरी तरह सही था तो एक बार इस पोस्ट के सबसे उपरी हिस्से में लगी तस्वीर पर गौर कीजिए. यह तस्वीर हिन्दुस्तान टाइम्स के फोटोग्राफर रामास्वामी कौशिक द्वारा 1 मार्च 2002 को ली गयी थी. अधिक पुष्टि के लिए आप 1 या 2 मार्च 2002 को छपा हिन्दुस्तान टाइम्स देख सकते हैं. (यह जानकारी इंटरनेट के माध्यम से ली गयी है.)

आखिरकार वही सवाल पैदा होता है कि क्या मीडिया अपना भी ऑपरेशन कर सकती है? क्या उसमें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत है? और क्या टीआरपी की भागमभाग में वह अब भी सिद्धांतों और विश्वसनीयता को बनाये रख पायेगा?

Friday 26 October, 2007

गुजरात में क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा क्या?



चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जी हां चाहे कितने ही लोगों ने सुना या देखा होगा आज तक- तहलका का वह स्टिंग ऑपरेशन. लेकिन सिर्फ आम लोगों ने ही नहीं मीडिया के दूसरे धरों ने भी इस पर अपनी निगाह रखी. 25 अक्टूबर की देर शाम तक यह कार्यक्रम चैनल पर दिखाया जा रहा था और अगली सुबह अखबारों ने भी इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया. अंग्रेजी अखबारों द इंडियन एक्सप्रेस और द टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस खबर को पहले पन्ने पर लीड स्पेस में जगह दी. जबकि हिंदी अखबारों में इसे सामान्य खबरों की तरह रखा गया. दो अखबारों राष्ट्रीय सहारा और राजस्थान पत्रिका में खबर पहले पन्ने पर छपी जबकि हिन्दुस्तान ने इसे अंदर के पन्ने पर दिखाया.
द टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे पहले पर सबसे ऊपर दो कॉलम की जगह दी है और अंदर के पन्नों पर भी जारी रखा है. अखबार ने स्टिंग ऑपरेशन में दिखाये गये अधिकतर लोगों को तहलका के हवाले से उद्धृत किया है. खबर में भाजपा का बयान भी प्रकाशित किया गया है जिसमें पार्टी ने ऑपरेशन को मोदी को बदनाम करने की साजिश बताया है. अखबार ने खबर में ही स्पष्टीकरण दिया है कि तहलका द्वारा किये गये स्टिंग के तथ्यों को द टाइम्स ऑफ इंडिया ने क्रॉस चेक नहीं किया है.
द इंडियन एक्सप्रेस ने तीन कॉलम में पहले पन्ने के लीड स्पेस से चली इस खबर को दूसरे पन्ने तक जारी रखा है. इसी खबर के साथ एक और खबर भी छपी है जिसमें न्यायमूर्ति नानावती के हवाले से कहा गया है कि नानावती आयोग मामले में संज्ञान ले सकता है. यह खबर मामले पर और ज्यादा फोकस करती है लेकिन इस अखबार में किसी संगठन या पार्टी का पक्ष नहीं रखा गया है.
हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने मुख्य पृष्ठ के निचले हिस्से में इस खबर को दो कॉलम की जगह दी है. पत्र ने तहलका के संपादक तरूण तेजपाल के हवाले खबर प्रकाशित की है. स्टिंग ऑपरेशन के तथ्यों को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है.
दैनिक हिंदुस्तान ने राष्ट्रीय समाचारों के पन्ने पर प्रकाशित खबर में इस बात को महत्व दिया है कि उच्च न्यायालय की एक वकील मामले की दुबारा सुनवाई के लिए अपील करने वाली है. इस पत्र ने भी खबर के लिए तहलका के संपादक तरूण तेजपाल द्वारा आयोजित प्रेस कांफ्रेंस का हवाला दिया है.
राजस्थान पत्रिका ने पहले पन्ने के सबसे निचले हिस्से में इस खबर को प्रकाशित किया है. पत्रिका ने लिखा है कि "गुजरात में हुए बडे पैमाने पर दंगे और नरसंहार के लिए तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर मोदी सरकार, विहिप और बजरंग दल की संलिप्तता का दावा किया है."
कुल मिलाकर देखा जाए तो इस माले में अधिकतर अखबारों ने सधा हुआ रूख अपनाया है. अधिकतर अखबारों ने तहलका को उद्धृत किया है. स्टिंग ऑपरेशन में जिन पर आरोप लगाया गया है खबरों में उनका पक्ष नहीं के बराबर है. एक बडे जनसमुदाय से जुडे होने के साथ यह मामला अतिसंवेदनशील भी था. इसलिए मामले में विभिन्न पक्षों की राय प्रकाशित की जानी चाहिए थी या यूं कहें कि एक ऐसे बहस का स्वरूप दिया दिया जाना चाहिए था जिसमें आरोपी, आरोप लगाने वाले और तटस्थ पक्ष सभी शामिल हों. इस दिशा अखबार नाकाम मालूम पडते हैं.

Thursday 25 October, 2007

ब्रेकिंग न्यूज : पत्रकार पिटे

वीरवार की शाम आईबीएन 7 पर यही ब्रेकिंग न्यूज थी। एक चैनल पर खबर चली क्या यह पूरी मीडिया के लिए ब्रेकिंग न्यूज बन गयी। हालांकि चैनल ने खबर को इस तरह दिखाया था : "लुधियाना में पहलवान भिडे।" पहली नजर में मैंने भी सोचा पहलवानों का भिड़ना नयी बात नहीं। लेकिन पूरी कहानी देखने के बाद पता चला कि पहलवान किसी और से नही पत्रकारों से भिडे थे।
यह खबर ब्रेकिंग न्यूज इसीलिए बनी कि मामला ऐसा है कि उस शाम लुधियाना में कुछ पहलवान प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे। दो एक दिन बात वहाँ कुश्ती प्रतियोगिता होनी थी। तभी खबर आयी कि प्रतियोगिता रद्द हो गयी है। तभी किसी बात पर एक पत्रकार को हँसी आ गयी. यह हँसी पहलवान को चिढा गयी और दंगल शुअरू हो गया.
सवाल है कि अगर पत्रकारों से पहलवानों की लड़ाई हुई भी तो क्या यह इतनी बड़ी बात है जो पूरे देश के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो। इतनी कि ब्रेकिंग न्यूज बन जाए। आख़िर ब्रेकिंग न्यूज का मतलब क्या है? यह घटना उस स्थान विशेष पर बड़ी बात हो सकती है। पर राष्ट्रीय चैनलों के लिए यह कैसे ब्रेकिंग न्यूज हो सकती है?
ठीक इसी समय दूसरे चैनल पर चल रहे ब्रेकिंग न्यूज पर नजर डालते हैं। आज तक की ब्रेकिंग न्यूज थी : मैडम तुशाद म्यूजियम में लगेगी सलमान की मूर्ति, सर्वेक्षण में सलमान और ऐश्वर्या से आगे निकले।
क्या यह खबर भी ब्रेकिंग न्यूज बनने लायक थी? कितना बड़ा जनसमुदाय इससे प्रभावित हो रहा था?
आज चैनलो के रवैये से बस इतना ही कहा जा सकता है कि टेलीविजन की टर्मिनोलोजी के लिए नए शब्दकोष का इस्तेमाल करना पडेगा.

Wednesday 24 October, 2007

करार पर रार है बुरी

जी हां, यही कह रहे हैं भारत के अखबार. मंगलवार को मीडिया में प्रधानमंत्री का बयान आया कि गठबंधन के कारण सरकार चलाने में मजबूरियां आती हैं. माना गया कि यह बयान वाम दलों के उस बयान का करारा जबाव था जिसमें उन्होंने करार पर आगे न बढने का लिखित आश्वासन मांगा था. इस दिन यूपीए-वाम दल समन्वय समिति की बैठक थी. दूसरी ओर वाम दलों ने इसी दिन यूपीए के कुछ घटकों और अन्य दलों के साथ बैठक कर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की थी.

अगले दिन छपे कई अखबारों ने करार पर राजनीतिक दलों के रवैये को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया. अधिकतर अखबारों ने यह कहा है कि करार पर यह गतिरोध देश के लिए ठीक नहीं है और राजनीतिक दलों का स्वार्थ इसके आडे आ रहा है. लेकिन किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि विरोध किन मुद्दों को लेकर हो रहा है. उन मुद्दों पर विचार नहीं किया गया है कि कहां तक वह देश के हित में हैं या नहीं. कम ही अखबारों में करार से होने सकने वाले फायदों का ज़िक्र किया गया है वह भी अंत की एक या दो पंक्तियों में.
द इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय का शीर्षक (पॉलिटिकल ड्यूटी) ही बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है. पत्र ने लिखा है: "यह क्यों न देखा जाए कि करार पर सदन में किसने अपनी बात रखी है और क्या सुझाव दिए हैं?" पत्र का कहना है कि इस मुद्दे पर नेताओं को शीघ्र अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए.

द इंडियन एक्स्प्रेस का कहना है कि "यदि मुद्दे पर आंतरिक बहस की तैयारी कर भी ली जाती तो विपक्षी और वाम दल संसद में बहस की जिद करते." पत्र कहता है कि "मध्यावधि चुनाव की आशंका राजनीति का व्यावसायिक खतरा है और इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन बहुदलीय व्यवस्था में कैबिनेट सभी का प्रतिनिधित्व करता है और यह ध्यान रखना राजनीतिक कर्तव्य है."

हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है "इस बात पर कभी बहस नहीं हुई कि करार देश के हित में है या नहीं. बहस का मुद्दा सिर्फ दो विषय रहे- (1) क्या भारत अमेरिका का अनुयायी बन रहा है और (2) क्या करार मध्यावधि चुनावों की कीमत पर हो."

पत्र कहता है कि आईएईए के साथ के साथ बातचीत के ठीक पहले वाम का एकाएक विरोध वैसा ही है जैसे बेटी की पसंद का दुल्हा चुनने और सारी रस्में पूरी करने के बाद मंडप में परिवार वाले "नहीं- नहीं" चिल्लाएं. पत्र का कहना है कि करार पर जारी यह अंदरूनी उठापटक देश के अंतर्राष्ट्रीय साख को नुकसान पहुंचाएगी.
हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने इसे वाम मोर्चा का कैकेयी हठ करार दिया है. पत्र ने लिखा है "सरकार को दिए जा रहे समर्थन की कीमत को आप ब्लैकमेल तक खींच कर ले जाएं, यह स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान तो मानी ही नहीं जा सकती."
हलांकि इस पत्र ने प्रधानमंत्री की भी आलोचना करते हुए लिखा है "प्रधानमंत्री इस्तीफ़ा देने के लिए क्यों अपने वरिष्ठों के सामने गिडगिडा रहे हैं? क्यों नहीं वे इस्तीफा देकर परंपरा कायम करते कि देश को अगर क्षमतावान प्रधानमंत्री नहीं चाहिए तो इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं."
इस तरह स्पष्ट है कि अखबारों ने इस मुद्दे पर सभी पक्षों की बात को नहीं रखा है. अगर वाम दलों की चिंताओं और करार से संभावित लाभ दोनों पर स्पष्ट बहस की जाती तो शायद पाठक को और अधिक जानकारी मिल पाती. साथ ही राष्ट्रीय परिदृश्य में मुद्दे को एक दिशा मिल पाती.