शायद यही समय आ गया है। आए दिन टीवी चैनलों पर लाइव वीडियो की लाइन लगी हुई है. लेकिन सवाल है कि ये लाइव विडियो हैं किस चीज के. अगर आप टेलीविजन के नियमित दर्शक हैं तो समझने में देर नहीं लगेगी कि ये वीडियो हैं चोरी-सेंधमारी व मार-पीट जैसी वारदातों के. किसी बाजार में, शो-रूम के अंदर या फिर विदेशी हवाई अड्डों/ रेलवे स्टेशन के बाहर का दृश्य. थोडी सी माथापच्ची के बाद आपको यह जानने में भी देर नहीं लगेगी कि ये 'सस्ता माल' आता कहां से है.
यहां दो बातें गौर करने की हैं. पहला यह कि क्या वाकई ये वीडियो लाईव हैं? अगर हां, तो लाइव दिखाने के लिए सबसे उपयुक्त विषय क्या यही हैं?
इन समाचारों को गौर से देखने पर आप खुद पाएंगे एंकर कह रहे होते हैं- घटना कल दोपहर .. बजे की है. अब भूतकाल में कैसा लाइव होता है यह तो आप सोच ही सकते हैं.
दरअसल दुनियाभर में जैसे जैसे अपराध बढा है, लोगों ने अपने सुरक्षा के लिए बेहतर इंतजाम किये. इसी सिलसिले में सरी आंख यानी छुपे कैमरे के प्रयोग को बढावा मिला. विदेश में ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही हो रहा है. जब भी कोई वारदात होती है तो रेकार्डेड मूवमेंट्स आसानी से मीडिया को उपलब्ध करा दी जाती है. टीवी के लिए खबर भी बन गयी और दूसरी पार्टी को मुफ्त पब्लिसिटी भी मिल गयी.
ऐसा नहीं है कि उस समय दिखाने के लिए एकमात्र या सबसे बडी खबर वही हो. यह तो सभी जानते हैं कि हर समय कुछ न कुछ रचनात्मक गतिविधि कहीं न कहीं चलती रहती है. हां, उनकी कवरेज के लिए कुछ अतिरिक्त श्रम की जरूरत हो सकती है. लेकिन दिखाया तो वही जाएगा जो दिखाने वाले तय करेंगे.
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1 comment:
इन टीवी चेनलों की दशा पर "हंस" पत्रिका का एक अंक कुछ माह पूर्व प्रकाशित हुआ था. मुझे विश्वास है आपने पढ़ा ही होगा अगर नही तो अवश्य पढिये. मज़ा आ जाएगा.
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