Wednesday 24 October, 2007

करार पर रार है बुरी

जी हां, यही कह रहे हैं भारत के अखबार. मंगलवार को मीडिया में प्रधानमंत्री का बयान आया कि गठबंधन के कारण सरकार चलाने में मजबूरियां आती हैं. माना गया कि यह बयान वाम दलों के उस बयान का करारा जबाव था जिसमें उन्होंने करार पर आगे न बढने का लिखित आश्वासन मांगा था. इस दिन यूपीए-वाम दल समन्वय समिति की बैठक थी. दूसरी ओर वाम दलों ने इसी दिन यूपीए के कुछ घटकों और अन्य दलों के साथ बैठक कर सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की थी.

अगले दिन छपे कई अखबारों ने करार पर राजनीतिक दलों के रवैये को लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया. अधिकतर अखबारों ने यह कहा है कि करार पर यह गतिरोध देश के लिए ठीक नहीं है और राजनीतिक दलों का स्वार्थ इसके आडे आ रहा है. लेकिन किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि विरोध किन मुद्दों को लेकर हो रहा है. उन मुद्दों पर विचार नहीं किया गया है कि कहां तक वह देश के हित में हैं या नहीं. कम ही अखबारों में करार से होने सकने वाले फायदों का ज़िक्र किया गया है वह भी अंत की एक या दो पंक्तियों में.
द इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय का शीर्षक (पॉलिटिकल ड्यूटी) ही बहुत कुछ स्पष्ट कर देता है. पत्र ने लिखा है: "यह क्यों न देखा जाए कि करार पर सदन में किसने अपनी बात रखी है और क्या सुझाव दिए हैं?" पत्र का कहना है कि इस मुद्दे पर नेताओं को शीघ्र अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए.

द इंडियन एक्स्प्रेस का कहना है कि "यदि मुद्दे पर आंतरिक बहस की तैयारी कर भी ली जाती तो विपक्षी और वाम दल संसद में बहस की जिद करते." पत्र कहता है कि "मध्यावधि चुनाव की आशंका राजनीति का व्यावसायिक खतरा है और इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन बहुदलीय व्यवस्था में कैबिनेट सभी का प्रतिनिधित्व करता है और यह ध्यान रखना राजनीतिक कर्तव्य है."

हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है "इस बात पर कभी बहस नहीं हुई कि करार देश के हित में है या नहीं. बहस का मुद्दा सिर्फ दो विषय रहे- (1) क्या भारत अमेरिका का अनुयायी बन रहा है और (2) क्या करार मध्यावधि चुनावों की कीमत पर हो."

पत्र कहता है कि आईएईए के साथ के साथ बातचीत के ठीक पहले वाम का एकाएक विरोध वैसा ही है जैसे बेटी की पसंद का दुल्हा चुनने और सारी रस्में पूरी करने के बाद मंडप में परिवार वाले "नहीं- नहीं" चिल्लाएं. पत्र का कहना है कि करार पर जारी यह अंदरूनी उठापटक देश के अंतर्राष्ट्रीय साख को नुकसान पहुंचाएगी.
हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने इसे वाम मोर्चा का कैकेयी हठ करार दिया है. पत्र ने लिखा है "सरकार को दिए जा रहे समर्थन की कीमत को आप ब्लैकमेल तक खींच कर ले जाएं, यह स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान तो मानी ही नहीं जा सकती."
हलांकि इस पत्र ने प्रधानमंत्री की भी आलोचना करते हुए लिखा है "प्रधानमंत्री इस्तीफ़ा देने के लिए क्यों अपने वरिष्ठों के सामने गिडगिडा रहे हैं? क्यों नहीं वे इस्तीफा देकर परंपरा कायम करते कि देश को अगर क्षमतावान प्रधानमंत्री नहीं चाहिए तो इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं."
इस तरह स्पष्ट है कि अखबारों ने इस मुद्दे पर सभी पक्षों की बात को नहीं रखा है. अगर वाम दलों की चिंताओं और करार से संभावित लाभ दोनों पर स्पष्ट बहस की जाती तो शायद पाठक को और अधिक जानकारी मिल पाती. साथ ही राष्ट्रीय परिदृश्य में मुद्दे को एक दिशा मिल पाती.

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