Saturday, 27 October 2007
ऑपरेशन अपना भी करें
आजतक ने कलंक का ऑपरेशन कर खूब टीआरपी बटोरी लेकिन इसके प्रसारण के दौरान चैनल पर ही छिडी बहस ने साबित कर दिया कि आज तथ्यों को खंगालने और जांचने की जरूरत खत्म हो गयी मालूम पडती है. जरा गौर से देखने पर आप पायेंगे कि कार्यक्रम के दौरान कई बार तथ्यों को इस तरह प्रस्तुत किया गया कि उनकी विश्वस्नीयता कठघरे में आ गयी.
मसलन कार्यक्रम के सबसे पहले स्लॉट में चैनल ने प्रश्न किया कि दंगा भडकने के बाद सेना को सडक पर उतरने में तीन दिन क्यों लगे? इन तीन दिनों में मुख्यमंत्री और अधिकारी क्या करते रहे? इसके बाद काफी देर तक कहा जाता रहा कि दंगाइयों को तीन दिन की छूट थी. इस कथन के पक्ष में चैनल ने प्रमाण भी प्रस्तुत किये.
लगभग बहुत देर बाद विवाद की स्थिति बनी जब एक भाजपा सांसद ने फोन पर कहा कि 28 तारीख को हिंसा शुरु हुई और 1 तारीख की सुबह 11 बजे वहां सेना मार्च कर रही थी. सांसद महोदय के इतना कहने पर पर एंकर महोदय उन्हें गिनती सिखाने लगे '28, 29 और 30 तीन दिन कैसे नहीं हुआ. उन्हें जबाव मिला तो एक हास्यास्पद स्थिति थी. सांसद ने बताया कि वह तारीख 28 फरवरी थी जिसके ठीक अगले दिन 1 मार्च था. फिर भी अपनी गलती स्वीकारने के बजाए एंकर इस बात पर अडे रहे कि सेना को सडक पर आने में तीन दिन लग गये.
लगभग बहुत देर बाद विवाद की स्थिति बनी जब एक भाजपा सांसद ने फोन पर कहा कि 28 तारीख को हिंसा शुरु हुई और 1 तारीख की सुबह 11 बजे वहां सेना मार्च कर रही थी. सांसद महोदय के इतना कहने पर पर एंकर महोदय उन्हें गिनती सिखाने लगे '28, 29 और 30 तीन दिन कैसे नहीं हुआ. उन्हें जबाव मिला तो एक हास्यास्पद स्थिति थी. सांसद ने बताया कि वह तारीख 28 फरवरी थी जिसके ठीक अगले दिन 1 मार्च था. फिर भी अपनी गलती स्वीकारने के बजाए एंकर इस बात पर अडे रहे कि सेना को सडक पर आने में तीन दिन लग गये.
दूसरे दिन भी चैनल पर ऑपरेशन कलंक का एपिसोड जारी था और वही सांसद महोदय चैनल के स्टूडियो में मौजूद थे. जब किसी बिन्दु पर उनसे सवाल पूछा गया तो उन्होंने अपनी शर्त रखी- "पहले मुझे उस तीन दिन का हिसाब दो फिर कोई बात होगी. कल से आप गलत प्रचार कर रहे हो." हालात बिगडते देख एंकर ने कहा हमने कोई तीन दिन की बात नहीं कही थी. सांसद इस बात पर अड गये कि चैनल ने तीन दिन की बात की है. उन्होंने दावा किया कि टेप दुबारा चलाया जाये उनकी बात सही साबित होगी.
तब एंकर महोदय ने सुधार किया "हम आपके विधायक की जुबान बोल रहे थे, ये देखिये आपके विधायक ने स्वीकार किया है कि दंगाईयों तीन दिन की मोहलत मिली थी." यहां कई सवाल खडे होते हैं- पहली बात कि क्या चैनल किसी और किसी और की जुबान बोलकर उस कथन को सही साबित करने की बहस का अधिकार रखता है.
दूसरे, अगर आप कार्यक्रम का पहला स्लॉट दुबारा देख सकें तो पता चल जाएगा कि विधायक के बयान से काफी पहले चैनल यह रटता आया था कि सेना को तीन दिन तक सडक पर उतारा नहीं गया. क्या अगर गलती होती है तो इसे स्वीकारना नहीं चाहिए. ऐसी हालत आयी भी मुख्य एंकर के सहयोगी ने लाइव ही स्वीकार किया- "छोडिये हमसे गलती हो गयी." लेकिन तभी मुख्य एंकर फिर से अड गये "नहीं, हम से कोई गलती नहीं हुई, हम हम बीजेपी विधायक की बात कह रहे थे."
एंकर का यह रवैया तीसरे और महत्वपूर्ण सवाल को जन्म देता है. अगर किसी महत्वपूर्ण पद पर बैठा आदमी कुछ भी बयान दे दे तो चैनल उसे ही सच मान लेगा? क्या क्रॉस-चेक जैसी कोई परंपरा नहीं होती? क्या चैनलों में संपादक नाम की संस्था का कोई अस्तित्व नहीं है. अगर आप यह मान बैठे हों कि चैनल अपने तथ्य पर पूरी तरह सही था तो एक बार इस पोस्ट के सबसे उपरी हिस्से में लगी तस्वीर पर गौर कीजिए. यह तस्वीर हिन्दुस्तान टाइम्स के फोटोग्राफर रामास्वामी कौशिक द्वारा 1 मार्च 2002 को ली गयी थी. अधिक पुष्टि के लिए आप 1 या 2 मार्च 2002 को छपा हिन्दुस्तान टाइम्स देख सकते हैं. (यह जानकारी इंटरनेट के माध्यम से ली गयी है.)
आखिरकार वही सवाल पैदा होता है कि क्या मीडिया अपना भी ऑपरेशन कर सकती है? क्या उसमें अपनी गलती स्वीकारने की हिम्मत है? और क्या टीआरपी की भागमभाग में वह अब भी सिद्धांतों और विश्वसनीयता को बनाये रख पायेगा?
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5 comments:
हो सकता है कि आने वाले समय में कोई दूसरा चैनल यह समाचार बताये कि किस तरह और किसने यह स्टिंग ओपरेशन प्रायोजित किया , करवाया।
फिलहाल तो आपके लेखों में जो सच्चाई है उसे पढ़ कर किसी में इतनी भी हिम्मत नहीं कि एक टिप्पणी तक कर सके।
यानि हम अपने हिसाब से नियम बना लते हैं, जो हमारे मन की बोले हो ही सही बाकी सब बकवास।
बहुत बढ़िया लिखा आपने और सच भी। आज से आफ मेरे पसंदीदा चिट्ठाकारों की सूची में शामिल हुए। :)
sagarchand.nahar@gmail.com
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
आप ने बहुत सही सवाल उठाया है...मीडीया को अपनी मन मानी कर ऐसे ब्यान नही देने चाहिए।ज्यादातर मामलों मे मीडीया कि भूमिका ऐसी ही दिखाई पड़ती है।
आप ने बहुत सही सवाल उठाया है...मीडीया को अपनी मन मानी कर ऐसे ब्यान नही देने चाहिए।ज्यादातर मामलों मे मीडीया कि भूमिका ऐसी ही दिखाई पड़ती है।
thanx 2 all for reading. pls keep in touch.
बहुत बुरी बात है अगर मीडिया खुद बायस्ड है तो आम लोग किससे प्रेरणा लेंगे
वैसे आजकल इलेक्टॉनिक मीडिया में तो प्रोडयूसर है या सीईओ संपादक तो बेचारे अखबार और मैग्जीन में ही संघर्ष कर रहे हैं
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