यह हम नहीं कहते खुद एक टीवी चैनल कहता है. वही चैनल जो आज कल सबसे ज्यादा चर्चा में है. जरा गौर कीजिए आजतक के कार्यक्रम 10 तक में एंकर द्वारा पूरे जोशो-खरोश से पढे गये इस समाचार पर- "तहलका आजतक के खुलासे से हिला पूरा हिन्दुस्तान, राजनीति में उबाल देशभर में बबाल."
क्या यह मीडिया की परिष्कृत भाषा है? भाषा को लेकर संतुलन क्यों नहीं बनाया गया? भाषा के इस गलत प्रयोग ने एक बार मीडिया की नैतिकता और जिम्मेदारी पर एक बार फिर सवाल खडे कर दिये.
अगर बबाल की स्थिति बनती ही तो क्या चैनल देश की जनता से शांति- सद्भाव बनाए रखने की अपील नहीं कर सकता था. चैनल ने वैधानिक चेतावनी दिखायी कि कार्यक्रम का बच्चों और कमजोर दिल वालों पर बुरा असर पर सकता है. वही चैनल एक पंक्ति में यह अपील भी क्यों नहीं कर पाता है कि दर्शक कोई ऐसी प्रतिक्रिया न दें जिससे सामाजिक सद्भाव पर प्रतिकूल प्रभाव पडे. अगर किसी कारण से देश के हिस्से में सामुदायिक हिंसा फैलती तो क्या चैनल आगे बढ कर इनकी जिम्मेदारी लेता?
कार्यक्रम के दौरान भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद बार बार संकेतों में कहते रहे कि "सांप्रदायिक तनाव में जिस जिम्मेदारी का अहसास दिखाया जाना चाहिए वह आपका चैनल भी शायद नहीं दिख सका है." मगर इस पर ध्यान देने की जरूरत किसे पडी थी? खुद जिम्मेदारी निभायें या नहीं हमें टोकने वाला कौन है?
चैनल दो दिन पहले से सबसे बडे कलंक का खुलासा करने का प्रचार कर रहा था. निश्चय ही चैनल को यह मालूम था कि वह इस समय के सबसे ज्यादा विवादास्पद मुद्दे को उठाने जा रहा है. इसलिए उसकी जिम्मेदारी बनती थी कि वह इस कार्यक्रम के बाद पैदा हो सकने वाले सभी हालातों से निपटने की पूरी तैयारी करे.
Tuesday, 30 October 2007
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